पाजेब
पाजेब ****** अनु श्री: *प्रकृति की पाजेब* प्रकृति ने पहने हैं झरनों के गहने सुगंधित पुष्पों के पैरहन हवाओं की बांँधी है पाजेब और जीवन तान छेड़ अपने सभी सहचरों संग हो रही मस्त मगन इस लय में लीन है धारिणी का कण-कण। इनके बिना ज़िंदगी बेजान मृत है प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वाले भोग विलास के ठेकेदार अपनी ही सांँसों को गिरवी रख कर चल रहे हैं उस पथ पर बना रहे खुद को कंक्रीट का बीहड़ जबसे प्रकृति से मानव की ठनी है इंसानों की जां पर बनी है। "शुभम भवतु "का आशीर्वाद देती हुई प्रकृति किस प्रेम से दोनों हाथों से अपने अनमोल खजाने हम पर लुटा रही है हमें हष्ट- पुष्ट तंदुरुस्त, जीवंत बना रही । वहीं लोलुप, स्वार्थी मानव को देखो प्रकृति की गोद उजाड़ अपनी ही सांँसें उखाड़ रहा है जीवनदायिनी प्रकृति के आंचल को कर रहा तार-तार अपने लिए बना रहा जीवन दुश्वार। सीखना होगा मानव को प्रकृति के संग रहना मर्यादित विशेष वरना उसके भी अवशेष नहीं रह जाएंगे शेष। @अनुपमा अनुश्री पाजेब पहनी है, कोई बेड़ियाँ नही पहनी । चल पड़ूंगी खनकती पाजेब के संग, रुनझुन रुनझुन की लय के साथ । हाँ है तो न