सीढ़ी

 



आज जो दो रचना सीढ़ी" शब्द पर मेरी नज़र से ली गई हैं, उसमें आज के रचयिता हैं क्रमशः निरुपमा खरे जी और विजया रायकवार जी
रश्मि प्रभा
ऊंचाई पर पहुंचे तुम
भूल ही गए उन सीढ़ियों को
जो जरिया बनी थीं
तुम्हें ऊंचाई पर लाने का
सीढ़ी दर सीढ़ी
कदम धरते तुम
आखिर पहुंच ही गए आसमां तक
आत्ममुग्ध,मद मस्त
आनंद लेते ऊंचाई का
पर खुशी बांटने को जब तलाशा
कोई साथी
तो पाया, तन्हा हो तुम
कोई नहीं जो पीठ थपथपाए
ताली बजाए
खुद ही तो हर सीढ़ी को
तोड़ते आए थे तुम
भूल गए थे कि
जो सीढियां ऊपर जाती हैं
वही नीचे भी आती हैं
खुद ही बंद किए थे
वो रास्ते
जो अपनों तक जाते हैं
अब आसमां पर पहुंचे तुम
कितने तन्हा,कितने अकेले
- निरुपमा खरे
आदरणीय बिंदु जी आपके द्वारा प्रेषित शब्द *सीढ़ी* पर एक कोशिश आपके समक्ष प्रस्तुत है।🙏
आरंभ किया जब
चढ़ना सीढ़ी दर सीढ़ी पर
लक्ष्य तक पहुंचाने की सीढ़ी
दूर दिखाई देती है।।
उस तक पहुंचने की
हौसला अफजाई कानों को
मधुर सुनाई देती है।।
दृढ़ निश्चय कर सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते जाना है
चाहे हो कितनी विघ्न बाधाएं
ऊपर को बढ़ते जाना है।।
कुछ मोटी कुछ छोटी कुछ खुरदुरी कुछ चिकनी सीढ़ी
कुछ छाले भी
दे जाएंगी कदमों को, लक्ष्य का ध्यान करना
और आगे बढ़ जाना है।‌।
तुम बिन सीढ़ी लक्ष्य अधूरे
साथ तुम्हारे बढ़ जाना है
तुम्हे सहयोगी बन जीवन में
सदा हमारे पथ प्रशस्त
हो जाना है,।।
पथ प्रशस्त हो जाना है,.....
*विजया रायकवार

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