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नवंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चित्र आधारित रचना

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  एक चित्र दिया शेफ़ालिका जी ने और भावों का सैलाब उमड़ा, अभिव्यक्तियों ने चित्र को जीवंत किया । आज की रचनाओं में जो दो रचना ब्लॉग पर लेने जा रही हूँ, वह है - सुविधाओं की हमको दरकार नही, जी लेते हर हाल मे हम पर मानी हमने हार नही । नही नसीब हो भोजन यदि तो, पानी ही पी लेते हैं । जैसे भी रखता है रखवाला, बस वैसे ही जी लेते हैं । सुबह सबेरे सर पर रख कर, केवल पानी की दो बोतल । चल पड़ते रोजी की तलाश मे, तभी जलेगा घर मे चूल्हा, जीते हैं बस इसी आस मे । सुख सुविधा की हमको चाह नही, एक वक्त की रोटी हो बस, दूजे की परवाह नही । जंगल की राह पकड़ लेते हैं, सुबह सबेरे हम हर रोज । थक हार कर पानी पी कर । कुछ पल लेते पेड़ों की ठौर । अगले ही क्षण पुनः निकलते, जंगल से लकड़ी लाने को । घर मे नन्हे मुन्ने बच्चों के भूखे पेट की आग बुझाने को । बिन्दु त्रिपाठी भोपाल मेहनतकश माथे पर स्वेद कणों का श्रृंगार सजाए वो श्रमिक स्त्री सुगठित देह और दमकती त्वचा कितनी खूबसूरत लग रही है उसे कहां दरकार है सौंदर्य प्रसाधन की उसके होंठों की हंसी और आंखों की चमक गवाही देती है उसके आंतरिक आनंद की कठिन श्रम से उपजा है ये निर्मल आनंद भ

भूल* से जुड़ी भूली बातें

  त्योहारों की धूम थी तो कमोबेश हम सब पटल से दूर थे, एक कमी थी, पर समयानुसार कमी महसूस करते हुए हम दूसरी गतिविधियों में रम जाते हैं - मैं भी रम गई थी, पर यकीनन इस पटल को भूली नहीं थी । हाँ, लेकिन बाकी चीज मैं भूलती बहुत हूँ, जैसे बुधवार, चूल्हे पर कुछ रखकर, कुछ लिखते हुए !!! तो आज भूलने को ही विषय बनाते हैं और लिखते हैं इस *भूल* से जुड़ी भूली बातें रश्मि प्रभा अनुपमा अनुश्री  - रे आदमकद ! हो गया है तू कितना बौना! तुझे हर वक़्त चाहिए सुख सुविधाओं का बिछौना! भूल गया है तू इस पुण्य धरा में कहांँ-कहांँ महान सभ्यता- संस्कृति के गौरव चिन्ह छुपे हुए हैं अपने मन से पूछ क्या तूने कभी खोजें हैं! अधुनातन रंग में रंग गया है जड़ों को खोखला कर के अकेलेपन में ढ़ल गया है! दिखावे का और भटकाव का मार्ग अपनाकर तू ख़ुद को भूल गया है। कण-कण है जिसकी शक्ति से गतिमान कभी गहराई में उतर ख़ुद ही हो जाएगी उससे पहचान यूंँ भोग विलास, बनावट का बजाकर तंबूरा काल का भोग बनता जा रहा भूलकर अपना अस्तित्व पूरा! इस नकलीपन को कहीं फेंक दे! पहनकर सच का चोला शांँति ,सुकून, प्रेम की त्रिवेणी में झूल झूला। किसी से

लक्ष्मी का आह्वान है

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दिवाली की जगमग रौशनी और उलूक ध्वनि -  मिट्टी के तन में चेतना की वर्तिका कंचन सी बनती है और देवालय की उजास हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को आलोकित करती है  ...  प्रेमदीप यूं तो मिलते हैं दीप मिट्टी के लाखों इस दुनिया में यत्र तत्र सर्वत्र देते हैं खुशियां अपार जलाए जाते हैं ये हर खुशी के अवसर पर नित्य प्रति घर-घर में सायं प्रातः द्योतक है ये उजाले के तम को हरते प्रकाश के दोषों का शमन करती शक्ति के महसूस किया है मैंने जलते दीपों के आलोक को मां की ममतामयी आंखों में मासूम अबोध बच्चे की टिमटिमाती आंखों में गुरु की आशीर्वाद देती भावों से भरपूर भावभीनी आंखों में बागों में खिलखिलाते चमकते दमकते रंग बिरंगे फूलों में आकाश से नेह बरसाती चांदनी की शीतल फुहारों में रंग बिरंगी चटक रंगों की ओढनी पहने सोलह श्रृंगार करती नवयौवना के मादक सौंदर्य में सरोवर में स्नान करते  क्रीडामग्न श्वेत हंसों के मध्य खिले श्वेत कमलों में हाथों में आलता लगाए पुष्पगुच्छ समर्पित करती अट्टालिकाओं पर चढ़ती उतरती रुनझुन करती ,दीप जलाती कामिनी के सौंदर्य में खिलखिलाते बच्चों की श्वेत सुंदर दंत पंक्ति में जल उठते हैं लाखों दीप मेर