भूल* से जुड़ी भूली बातें

 



त्योहारों की धूम थी तो कमोबेश हम सब पटल से दूर थे, एक कमी थी, पर समयानुसार कमी महसूस करते हुए हम दूसरी गतिविधियों में रम जाते हैं - मैं भी रम गई थी, पर यकीनन इस पटल को भूली नहीं थी ।


हाँ, लेकिन बाकी चीज मैं भूलती बहुत हूँ, जैसे बुधवार, चूल्हे पर कुछ रखकर, कुछ लिखते हुए !!!

तो आज भूलने को ही विषय बनाते हैं और लिखते हैं इस *भूल* से जुड़ी भूली बातें



रश्मि प्रभा

अनुपमा अनुश्री  - रे आदमकद !


हो गया है तू कितना बौना!
तुझे हर वक़्त चाहिए
सुख सुविधाओं
का बिछौना!
भूल गया है तू
इस पुण्य धरा में
कहांँ-कहांँ महान
सभ्यता- संस्कृति के
गौरव चिन्ह छुपे हुए हैं
अपने मन से पूछ
क्या तूने कभी खोजें हैं!

अधुनातन रंग में रंग गया है
जड़ों को खोखला कर के
अकेलेपन में ढ़ल गया है!
दिखावे का और भटकाव
का मार्ग अपनाकर
तू ख़ुद को भूल गया है।
कण-कण है जिसकी
शक्ति से गतिमान
कभी गहराई में उतर
ख़ुद ही हो जाएगी
उससे पहचान
यूंँ भोग विलास, बनावट
का बजाकर तंबूरा
काल का भोग बनता जा रहा
भूलकर अपना अस्तित्व पूरा!

इस नकलीपन
को कहीं फेंक दे!
पहनकर सच का चोला
शांँति ,सुकून, प्रेम की
त्रिवेणी में झूल झूला।
किसी से क्या सत्य पूछना है!
किसी से क्या सच सुनना है!
जब स्वयं के भीतर बहता
अध्यात्म का पावन झरना है
जो अनिवर्चनीय, अप्रतिम ,शाश्र्वत,
अमोघ अभ्यर्थना है।

नदियांँ प्रक्षालन कर
रही हैं जिसका
खग- विहग, मोर मस्त
मगन आलाप कर रहे
यक्ष ,गंधर्व, किन्नर
धरा पर उतर
इन स्वर लहरियों में
संगत दे रहे
सूरज ,चांद, तारे उतर रहे
करने आरती सृष्टि की
इस आत्मिक अनुभूति को
चाहिए बस एक सुंदर दृष्टि।

भारतीयता की
भावअनुभूति विलक्षण है
विराट संगीत, विराट सत्ता
का स्तुति वंदन है
कण- कण में जैसे घुला
सुनहरा चंदन है
विलक्षण ,अप्रतिम
अद्भुत नाद है
हवाओं में मध्यम सुर में
बज रहा बांसुरी
का प्रेमराग है
जो ह्रदय का गीत है
धड़कनों की मौज है
कुछ और नहीं
सिर्फ अध्यात्म का ओज है
रे आदम कद ! अब बता
फिर तुझे किसकी खोज है!


निरुपमा खरे जी की रचना 

बैठी थी चंद घड़ियां
फुर्सत की चुन कर
कुछ फैलाव समेटने
कुछ बिखराव सहेजने
छूटते ही एक पोटली यादों की
बिखर गई जानें
कितनी यादें
भूली बिसरी सी
जितना सहेजती हूं
उतना ही खुद बिखरती
जाती हूं मैं
लगा था भूल ग‌ई हूं
सब कुछ
पर ये भ्रम टूट गया
जकड़ती जा रही हूं
इन यादों के जाल में
जितना उबरती हूं
उतना ही डूबती जाती हूं
आना ही होगा बाहर
इस मृगतृष्णा से
सच है वो आज
जिसमें मुझे जीना है

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