*आरंभ* लक्ष्य का,




*नई चेतना- नई सृष्टि....*
विगत वर्ष की आपदा, विपदा विसंगतियों, त्रासदियों को,
खूंटी पर टांँगकर भूल जाएंँ,
नई उमंगों और
सकारात्मकता से
फिर बढ़ चलें,
स्वागत करने नववर्ष का,
आगाज करें नयी रोशन,
मंजिलों तक पहुंचाने वाले संघर्ष का।
पुरुषार्थ की डोर थाम
जीवन को दें सही
अर्थों में उड़ान,
आगत हर लम्हे पर
शुभ कर्मों का लें,
प्रभु से वरदान ।
बीते सबक को रख साथ
सर्वजन हिताय को,
हृदय में प्रश्रय दें
सिर्फ खुद को न उठाएंँ ,
इसको, उसको ,सबको
आगे बढ़ाएंँ,
एक साथ चलें,
नई सोच ,नई दृष्टियुक्त
समष्टि हितार्थ।
लेकर हौसले, जुनून
सच्चाई,
ईमानदारी की,
आब से रोशन करते चलें,
सब की राहों में चिराग
हर लम्हे पर लिख दें,
अच्छाई की इबारत
संवेदनाओं की जिल्द से बंधी हो,
नए साल की नई किताब।
ऐसा कुछ करें
कि इंसान कहलाएंँ
न भटके , न बिखरें
श्रेष्ठ आचरण से
मानस हंस बन चमकाएंँ इंसानियत का महताब।
अनुपमा अनुश्री

*चिरस्थाई तलाश*
है तलाश,
सूरज को ,
चंदा को,
हरदम बहती नदिया को,
मिले सुकून,
पल भर को.....
डूब कर भी सागर में,
नहीं डूबता,
सरे शाम
उगता दूजे छोर
अलस भोर
क्षणांश को,
नहीं सोता,
सूरज हूँ, जलता हूँ,
देता हूँ जीवन,
ऊगाता हूँ अन्न धन,
चाँद हूँ, चलता हूँ.....
बाँटता हूँ विश्रांति,
हरता हूँ क्लांति,
अनवरत......
चप्पे-चप्पे को,
पेड़ को, पौधे को,
चींटी को, शेर को,
मानव को, दानव को,
दौड़ता हूँ चहूँ ओर,
काश मिले!
कोई ठौर,
जो न हो तेरा ,
न हो मेरा ,
आरंभ से अंत तक
अनंत काल तक
बस हो एक,
रैन बसेरा....
*- मधू्लिका सक्सेना 'मधुआलोक'*
********
*आरंभ *
जीवन का अंत ही है आरंभ
तुम बढते चलो
रुक नहीं सकते
कि तुम थक नहीं सकते
जीवन में मृत्यु का डर नहीं
मृत्यु जीवन का अंत नहीं
यह तो है
नये जीवन का आरंभ
उड़ने को आतुर
अनंत आकाश में
अंत वो जो नवजीवन दे
आरंभ का ज्ञान दे
आरंभ वो जीवन को
नयी उड़ान दे..
नव जीवन का
आरंभ यही है
शेफालिका श्रीवास्तव
आरंभ
आरंभ से अंत तक
हर कोशिश हो अगर मन से,
कौन कहता है,
सफलता की सीढ़ियां,
चढ़ने में मानव मन
हार जायेगा।
सकुचाये भले ही मन,
कुशलता तो मिलती है
लगन और मेहनत से ही
विचलित न हो जरा भी
विश्वास से ही बढ़ते जाये
मुस्कुराहटों के साथ
मान कर मन में यही
आरंभ ही रंग लायेगा।।
श्रीमती श्यामा देवी गुप्ता दर्शना भोपाल
जब से *आरंभ* हुआ आरंभ
नित नूतन नवाचार हुए ।
हर मौसम हर अवसर पर,
आयोजन लगातार हुए ।
प्रबुद्ध जनों की छत्रछाया में,
आचार और विचार हुए ।
कभी झील तो कभी नाव पर,
आरंभ के कार्यक्रम बेमिसाल हुए ।
तीक्ष्ण बुद्धि की मलिका अनुश्री
बढ़ा रही आरंभ पटल पर श्री
अपनी अध्यक्षता मे नित नूतन नवाचार ही करती रहती ।
विशिष्ट उपलब्धि रही आरंभ की
*आरंभ उद्घोष* प्रकाशन की ।
आरंभ पटल से जुड़े हुए सब
रचनाकारों की हुई लेखनी
धन्य धन्य सम्मानों से ।
और विशेष गौरव की बात
आरंभ किसी का होता है तो,
अंत अवश्य ही होता है ।
लेकिन यह आरंभ है अद्भुत
और बड़ा विलक्षण है ।
इसका केवल आरंभ हुआ और
नित नए नवाचारों से सज कर
केवल आरंभ ही होता रहता ।
है यकीन आरंभ सदा ही
पुष्पित और पल्लवित होगा ।
अभी तो मंजिल और है पानी
आरंभ और भी सुरभित होगा ।
बिन्दु त्रिपाठी
कागज का हवाई जहाज
जब हवा में तैरता बढ़ता है
तो आँखों में हंसी टिमटिमाती है ...
कागज की नाव जब थोड़े से पानी में
बांयें दांयें इठलाती है
तो लहरों पर भीगे पांव मचलते हैं ...
कागज की पतंग
जब आसमान को छूने की खातिर
और ऊपर और ऊपर पहुँचती है
तो असम्भव कुछ भी नहीं लगता ...
कागज़ पर जब आड़ी तिरछी रेखाएं बनती हैं
तो कई शक्लें दिखती हैं
अदृश्य में एक कैनवस ईशारे करता है
आकृतियाँ ख्यालों के लिबास में
आँखों के आगे चलने लगती हैं ...
कागज पर जब मन
शब्द बनकर उतरता है
तो सपनों को
दर्द को
बचपन को .....
एक क्षणिका से काव्य,कहानी,....
जीवन वृत्त बनाता है
निर्जीव को संजीवित करता है...
...
काग़ज़ *आरंभ* है
लक्ष्य का,
दिशा का,
सपनों की बुनियाद का,
अंतस की पहचान का,
एक अस्तित्व का .....
.....................
कागज पर एक लम्बी यात्रा की वसीयत होती है
जायदाद से परे जो वसीयत
हवा में तैरती है
पानी में इठलाती है
आकाश को छूती है ..............
उसे वही समझता है,देखता है
जिसकी आँखों में कभी हंसी टिमटिमाई होती है
और कमरे में विभिन्न शक्लों में
फटे कागज अपना घर बसाये होते हैं
ये कागज
जब नन्हें हाथों में
उनकी खिलखिलाहट बने होते हैं
तो उस खिलखिलाहट में जो कैद हो जाता है
असली ज़िन्दगी वही जीता है !
रश्मि प्रभा

 

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