हिंदी की बिंदी
मैं हिंदी की अनुपम बिंदी हूँ,
मातृ भूमि के माथे की संगी हूँ।
हैँ मेरी संतान अनेक।
उनमें भेद नहीं मैं रखती हूँ
मैं हिंदी की बिंदी हूँ.....
स्वर, व्यंजन हैँ मेरे अंग,
जिनसे सजता मेरा रंग।
हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
मैं सबके दिल में बसती हूँ।।
मैं हिंदी की बिंदी हूँ.......
देश में जितनी बोली हैँ,
वे सब मेरी हमजोली हैँ।
सबको गौरव दिलवाती हूँ,
जीवन में सम्मान दिलाती हूँ।।
मैं हिंदी की बिंदी हूँ.....
मैं सिंधु की जलधारा हूँ,
लाई अनेक सह धारा हूँ।
पूरब- पश्चिम, उत्तर- दक्षिण,
सबके लिए मैं सेतु हूँ।।
मैं हिंदी की बिंदी हूँ....
भाषा कोई नहीं कमतर,
पर मातृभाषा रहे उच्चतर।
गोरी विमाता करती राज,
फिर भी पहचान रखती हूँ।।
मैं हिंदी की बिंदी हूँ......
हिंदी साधन और साध्य है,
हिंदी ही हमारी आराध्य है।
हिंदी आदि और अन्त है,
मैं ही सबकी दिगंत हूँ।।
मैं हिंदी की बिंदी हूँ...
कमल चंद्रा
भोपाल
क्या बात कमल चंद्र जी मैं सिंधु की जलधारा हूँ....... प्यारी पंक्तियां
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