।।।सांझी माता ।।


 

(,पितृपक्ष में मनाती है कुवांरी कन्या )

 श्रीमती उषा चतुर्वेदी

सांझी माता का पर्व भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक होता है यह पर्व विशेषकर कुंवारी कन्याओं का होता है यह पूरे पितृपक्ष के 16 दिनों तक चल.ता है
सांझी माता का पर्व विशेषकर ब्रज क्षेत्र राजस्थान बुंदेलखंड गुजरात मालवा निमाड़ मैं मनाया जाता है। सांझी माता को ब्रज क्षेत्र में चंदा तरैया कहते हैं ब्रज क्षेत्र के( भदावर) आगरा मथुरा बटेश्वर तथा आगरा जिले के बाह तहसील के गांव में ब्रज भाषा बोलने के कारण ही चंदा तरैयां कहलाता है।
कुंवारी कन्याएं 16 दिनों तक घर के बाहर दरवाजे के पास वाली दीवार पर अथवा घर के अंदर आंगन की दीवाल पर गोबर से विभिन्न आकृतियां बनाती है। 16 दिन अलग-अलग आकृति बनाई जाती है लेकिन सूरज देवता चंद्रमा देवता तथा 7  तारे आवश्यक रूप से रोज बनाए जाते: कुंवारी कन्या है पहले घर के दरवाजे के पास वाली दीवार को चूने से पोत कर पवित्र करती है। उसके बाद उसे गाय के गोबर से लीपती है। उतना ही स्थान लीपती है जितने स्थान पर सांझी माता एवं अन्य चीजें बनाती हैं। जिस स्थान को लिखती है ऊपर एक कोने में सूरज देवता तथा दूसरे कोने में चंद्रमा बनाती हैं बीच में सात तारे रखती हैं साथ ही बीचोबीच में सात स्वास्तिक बनाकर उन्हें आपस में जोड़ती हैं उसे सत सतिया कहते हैं फिर उसे रोली हल्दी आटा चूड़ी के टूटे हुए टुकड़े मोती चमकने पन्नी आदि से सजाती हैं तथा दूसरे दिन जो दीवाल पर गाय के गोबर से जो वस्तुएं बनाई हैं उन्हें निकाल कर उस सूखे गोबर को इकट्ठा कर लेती हैं दूसरे दिन फिर दीवाल को गोबर से लीपती है तथा दूसरी आकृति बनाते हैं जैसे चौपड़ शंख 8 कली का फूल पंखा मोर मोरनी चारदीवारी 8 देवारी फूल का गमला वृद्ध दंपति हाथी जनेऊ नदी इसमें गंगा जमुना या अन्य नदियां बनाती साथ में सूरत देवता चंद्रमा देवता तथा तारे अवश्य ही बनाती हैं यदि कुछ नहीं बनाती तो उस दिन चंद्रमा सूरज और सात तारे आवश्यक रूप से बनाती हैं। बनाने का कार्य शाम को होता है तथा अंधेरा हो जाने के बाद सांझी माता की आरती होती है तथा साथ ही में प्रसाद लगाया जाता है। क्योंकि यह एक पर बिजी है तथा एक खेल भी है इसमें जो प्रसाद बनाती हैं एक दूसरे को नहीं बताती कहती हैं आप अनुमान लगाओ यदि अनुमान सही निकलता है वह कन्या बहुत होशियार मानी जाती है। क्योंकि यह शाम को बनाई जाती है इसलिए सांझी कहते है। ब्रज क्षेत्र में इसे चंदा तरैया इसलिए कहा जाता है क्योंकि चांद और सात तारे आवश्यक रूप से बनाने होते हैं।
तेरस के दिन लड़के की शादी में बनाई जाने वाली एक विशेष प्रकार की कलाकृति बनाते हैं। यह कलाकृति अमला कही जाती है( ब्रज क्षेत्र में लड़के की शादी में यह कलाकृति रंगों से बनाई जाती है तथा दुल्हन पहले इस कलाकृति की पूजा कर कर तब घर में प्रवेश करती है इसमें दूल्हा-दुल्हन भी बनाए जाते हैं) चौदस के दिन इसे हटाते नहीं है तथा अमावस्या के दिन इसे हटा कर दीवाल को चूने से पोततेहैं। फिर उसी स्थान पर रंगों से यही कलाकृति बनाई जाती है जो साल भर बनी रहती है।
हमारी भारतीय संस्कृति कोई भी त्यौहार हो या पर्व हो प्रकृति से जुड़ने का भी संदेश देती है प्रकृति प्रदत्त जीव जंतु तथा अन्य प्राकृतिक वस्तुएं के संरक्षण का संदेश भी यह पर्व देता है दीवाल पर बनाई जाने वाली विभिन्न आकृतियां उस का प्रतीक है। धार्मिक दृष्टि  से हम देखें सांझी माता पार्वती जी का प्रतीक है इनकी पूजा और आराधना करके कुंवारी कन्या अच्छा घर  तथा वर मांगने की कामना करती हैं साथ ही में अपने भविष्य को सुखद बनाने की कल्पना भी मन में रखती है। रात में जब दीपक जलाकर आरती करती हैं तथा आरती गाती भी हैं
     आरती रे आरती संझा वाली आरती
सोने का दिया भी म होवे की बाती 
नो सौ पितरा पित्त रानी के
भरे कनागत पितरन के 
अंत में वह सांझी माता से आशीष मांगती हैं।
माय माय तुम देओ आशीष।.
सांझी रे सांझी का ओढेगी 
का पहनेगी
काय को सीस बन बाऐगी 
मां कौशल्या मोसे कहीं बहन रुक्मणी मोसे कई
लेकिन आज आईटी के जमाने में लोग इस त्यौहार को पूरी तरह से भूले जा रहे हैं गांव में तो अभी भी थोड़ा बहुत प्रचलन है लेकिन शहर की बच्चियां सांझी माता का पर्व जानती ही नहीं। अभिभावकों से मेरा आग्रह है आओ हम लौट चलें अपने इन पर्वों की तरफ ताकि हमारी भारतीय संस्कृति सदा जिंदा रहे हमारे पर्व मोबाइल टीवी कंप्यूटर के कारण विलुप्त ना हो जाए। आओ लौट चलें भारतीय संस्कृति के पर्वों की ओर .


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पाजेब

सुबह

*आरंभ* लक्ष्य का,