गुरु ब्रह्मा, विष्णु


 



 


भारतीय परम्परा में हज़ारों वर्षों से गुरु की महत्ता को अनेक ऋषि मुनियों ने बखूबी गाया है | रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों में भी गुरु को विशेष स्थान दिया गया है | गुरु को ब्रह्म और विष्णु भी कहा गया है | तुलसीदास जी ने कहा है ---

गुरु बिन भवनिधि तरई ना कोई, जो विरंचि संकर सम होई |

भले ही कोई ब्रह्मा और शंकर के समान क्यों ना हो गुरु के बिना भवसागर पार करना असंभव है |

यही कारण है कि गुरु को ब्रह्मा और विष्णु की उपाधि दी जाती है |

भारत में प्रति वर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है | इस दिन सभी शिष्य अपने अपने गुरुओं के प्रति श्रुद्धा भाव से स्तुति करते हैं और उन्हें गुरु दक्षिणा भी देने की प्रथा है | इस प्रथा का उद्देश्य भी यही है कि सभी शिष्यों के मन में अपने गुरुओं के लिए आदर - सत्कार के भाव बने रहें | 

५ सितंबर हमारे भारतवर्ष के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है | डॉ कृष्णन एक आस्थावान हिन्दू भारतीय संस्कृति के संवाहक और महान दार्शनिक थे | उन्हीं के सम्मान में यह शिक्षक दिवस मनाया जाता रहा है | यह एक दिन इसलिए रखा गया है जिससे बच्चों में अपने गुरु और शिक्षकों के प्रति आदर और सम्मान की भावना जागृत हो सके | बच्चे बड़े उत्साह के साथ स्कूलों में जाकर अपने अपने शिक्षकों को उपहार देते हैं ; अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं | स्कूलों में शिक्षकों के लिए खान पान की भी व्यवस्था की जाती है | अनेक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है | जिसमें बच्चे बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं और अपने अध्यापकों का मनोरंजन करते हैं |

संत कबीर कहते हैं ---

 गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट 

 अंतर हाथ सहार दै,  बाहर बाहै चोट |

अर्थात गुरु कुम्हार की तरह होता है और शिष्य घड़े के समान होता है | जिस तरह कुम्हार घड़े की कमियों को बार बार दूर करता है और चाक पर मिट्टी को  घुमाकर अंदर हाथ लगाकर बाहर से हल्की चोट मार कर सुंदर घड़ा बनाता है उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को अपने परिश्रम से गुणवान व्यक्ति बनाने और उसके सुंदर भविष्य का निर्माण करने में अहं भूमिका निभाते हैं |  

भारत वर्ष सदा से ही ऋषियों - मुनियों की भूमि रहा है |  यहाँ अनेक गुरु हुए हैं उनमें से एक गुरु थे द्रोणाचार्य, जो धनुष विद्या के महान धुरंधर थे और अर्जुन को, जो उनके प्रिय शिष्य थे, धनुष विद्या में विश्व में प्रथम स्थान दिलाना चाहते थे | एक बार एकलव्य नामक एक बालक, जो जाति से निषाद था, उनके पास आया | वह धनुष विद्या का ज्ञान प्राप्त करने में बहुत रुचि रखता था, गुरु द्रोणाचार्य की ख्याति उसने सुन रखी थी | गुरु द्रोणाचार्य को वह अपना गुरु मान बैठा था और उनसे शिक्षा प्राप्त करना चाहता था, किन्तु गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया तो उसने जंगल में जाकर द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर ही शिक्षा अध्ययन किया और बहुत कुशल तीरन्दाज़ बन गया | जब वह गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और कहा कि उसने उनकी मूर्ति से धनुष विद्या अर्जित की है तब गुरु द्रोणाचार्य को बड़ा अचम्भा हुआ कि  इसने इतनी अच्छी विद्या कैसे अर्जित कर ली ? वे तो अपने शिष्य अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुषबाण चलाने वाला व्यक्ति बनाना चाहते थे | गुरु ने दक्षिणा के रूप में उसके दायें हाथ का अँगूठा ही माँग लिया | एकलव्य ने उसी समय बिना विलंब किए अपना अँगूठा उन्हें काट कर दे दिया, ऐसी थी गुरुओं के प्रति शिष्यों कि भावना | एकलव्य गुरु- शिष्य परंपरा का एक सर्वोत्तम उदाहरण है |

गुरु के पास यदि आसन ग्रहण करना होता था तो शिष्य नीचे स्थान पर बैठते थे, गुरु को सदैव उच्च स्थान दिया जाता रहा है |

अध्यापक अथवा गुरु राष्ट्र की संस्कृति और  सभ्यता को संचित करने में एक माली जैसी भूमिका निभाते हैं | जिस प्रकार माली अपनी सच्ची लगन और निष्ठा से बाग की रखवाली के साथ साथ पेड़ पौधों को सींचता है, उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्यों में अपने ज्ञान द्वारा उनमें ज्ञान वृद्धि करते हैं और सही आचरण करना सिखाते हैं जिससे उनके सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सके |

किसी भी शिष्य को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति तभी हो सकती है जब वह अपने गुरु का आदर और सम्मान करे, उनकी स्तुति करे, गुरु के बताए मार्ग पर चले | गुरु ही एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर जीवन के प्रति सारी शंकाओं का और पापों का निवारण हो सकता है |

कबीर दास जी कहते हैं ----

गुरु गोविंद दौऊ खड़े, काके लागूँ पाय |

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय | 

गुरु के शिक्षा रूपी प्रसाद से गोविंद अर्थात भगवान से मिलने का मार्ग मिलता है | इसीलिए यदि गुरु और गोविंद दोनों खड़े हैं तो शिष्य कहता है मुझे गुरु के ही चरण स्पर्श करना चाहिए क्योंकि गुरु ने ही तो नारायण को जानने और पाने का मार्ग दिखाया है | 

वर्तमान समय में ये एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि गुरुओं के प्रति आदर की भावना बहुत कम हो रही है | पीठ पीछे गुरुओं का मज़ाक बनाना और उनकी नकल करना, उन पर हँसना, आम बात हो गई है; ना ही शिष्यों को गुरु में नारायण दिखाई देते हैं और गुरु भी पूरी निष्ठा से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं | गुरु भी अपने ज्ञान से आर्थिक लाभ उठाने का पूरा प्रयत्न करते हैं | इससे शिष्यों के मन में अपने गुरुओं के प्रति ऐसी भावना घर कर जाती है कि वे उनसे बदला लेने पर भी उतारू हो जाते हैं |  

गुरुओं और शिष्यों दोनों को ही इस ओर प्रयत्न करना चाहिए जिससे दोनों ही अपने अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहें और भारत वर्ष में फिर से सदियों से चली आ रही गुरु परंपरा को पुन: जीवित किया जा सके | हम सभी में अपने गुरुओं के प्रति इतना आदर होना चाहिय कि हमें गुरु में ही ब्रह्मा दिखाई दें और गुरु में ही विष्णु और महेश्वर | जब कोई भी व्यक्ति अपने माता पिता का सम्मान करता है तो जीवन में उसकी हर मुश्किलें स्वत: दूर हो जाती हैं | जब बच्चा जन्म लेता है तभी से माँ और पिता द्वारा ही बच्चे को शिक्षा का ज्ञान प्राप्त होता है | सर्व प्रथम मात- पिता ही गुरु होते हैं इसलिए उनका भी सम्मान और आदर अति आवश्यक है | 

गुरुर्ब्रहमा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा

गुरु साक्षात पर ब्रहम है, तस्मै श्री गुरुवै: नम:

गुरु ही ब्रह्मा हैं गुरु ही विष्णु हैं और महेश्वर हैं गुरु तो साक्षात परम ब्रह्म है इसलिए उन्हें नमन |

शिक्षक दिवस के अवसर पर सभी गुरुजन को शत शत प्रणाम |   

    

      सविता अग्रवाल ‘सवि’ कैनेडा 

      

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