संदेश

पाजेब

चित्र
  पाजेब ****** अनु श्री: *प्रकृति की पाजेब* प्रकृति ने पहने हैं झरनों के गहने सुगंधित पुष्पों के पैरहन हवाओं की बांँधी है पाजेब और जीवन तान छेड़ अपने सभी सहचरों संग हो रही मस्त मगन इस लय में लीन है धारिणी का कण-कण। इनके बिना ज़िंदगी बेजान मृत है प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वाले भोग विलास के ठेकेदार अपनी ही सांँसों को गिरवी रख कर चल रहे हैं उस पथ पर बना रहे खुद को कंक्रीट का बीहड़ जबसे प्रकृति से मानव की ठनी है इंसानों की जां पर बनी है। "शुभम भवतु "का आशीर्वाद देती हुई प्रकृति किस प्रेम से दोनों हाथों से अपने अनमोल खजाने हम पर लुटा रही है हमें हष्ट- पुष्ट तंदुरुस्त, जीवंत बना रही । वहीं लोलुप, स्वार्थी मानव को देखो प्रकृति की गोद उजाड़ अपनी ही ‌सांँसें उखाड़ रहा है जीवनदायिनी प्रकृति के आंचल को कर रहा तार-तार अपने लिए बना रहा जीवन दुश्वार। सीखना होगा मानव को प्रकृति के संग रहना मर्यादित विशेष वरना उसके भी अवशेष नहीं रह जाएंगे शेष। @अनुपमा अनुश्री पाजेब पहनी है, कोई बेड़ियाँ नही पहनी । चल पड़ूंगी खनकती पाजेब के संग, रुनझुन रुनझुन की लय के साथ । हाँ है तो न

*आरंभ* लक्ष्य का,

चित्र
*नई चेतना- नई सृष्टि....* विगत वर्ष की आपदा, विपदा विसंगतियों, त्रासदियों को, खूंटी पर टांँगकर भूल जाएंँ, नई उमंगों और सकारात्मकता से फिर बढ़ चलें, स्वागत करने नववर्ष का, आगाज करें नयी रोशन, मंजिलों तक पहुंचाने वाले संघर्ष का। पुरुषार्थ की डोर थाम जीवन को दें सही अर्थों में उड़ान, आगत हर लम्हे पर शुभ कर्मों का लें, प्रभु से वरदान । बीते सबक को रख साथ सर्वजन हिताय को, हृदय में प्रश्रय दें सिर्फ खुद को न उठाएंँ , इसको, उसको ,सबको आगे बढ़ाएंँ, एक साथ चलें, नई सोच ,नई दृष्टियुक्त समष्टि हितार्थ। लेकर हौसले, जुनून सच्चाई, ईमानदारी की, आब से रोशन करते चलें, सब की राहों में चिराग हर लम्हे पर लिख दें, अच्छाई की इबारत संवेदनाओं की जिल्द से बंधी हो, नए साल की नई किताब। ऐसा कुछ करें कि इंसान कहलाएंँ न भटके , न बिखरें श्रेष्ठ आचरण से मानस हंस बन चमकाएंँ इंसानियत का महताब। अनुपमा अनुश्री *चिरस्थाई तलाश* है तलाश, सूरज को , चंदा को, हरदम बहती नदिया को, मिले सुकून, पल भर को..... डूब कर भी सागर में, नहीं डूबता, सरे शाम उगता दूजे छोर अलस भोर क्षणांश को, नहीं सोता, सूरज हूँ, जलता ह

सुबह

चित्र
  सुबह से रात तक के सफ़र में, सुबह की बात जितने लोगों की कलम ने की, उसमें किसे भूलूँ, किसे याद करूँ जैसी हालत है । तो आज मैं सबका चयन करती हूँ, सिर्फ एक बेमिसाल रचना को छोड़कर, जो विषय से अलग है । अनुश्री जी (वह तस्वीर ब्लॉग पर लगेगी),शेफालिका जी,आर के तिवारी जी,निरुपमा खरे जी, बिंदु त्रिपाठी जी,उषा चतुर्वेदी जी,मधुलिका सक्सेना जी,रेखा भटनागर जी, साधना मिश्रा जी . . . सबको बधाई । भोर की आहट ****** मन में है उल्लास भरा , नयी सुबह होने को है । दिखीं गई आशा कि किरण , धुँधलका छट जाने को है ॥ मिट्टी पानी हवा धूप की , खाद मिली है प्रकृति को । खिल उठेगी आज धरा भी , सुवासित हो तन मन से । उल्लासित हो चले नर नारी , स्वच्छंद बने उड़ते फिरते । नवसृजन की आस लिये , बढ़े लक्ष्य की ओर चले । तम के बाद छाया उजास, निशा गयी , आ गई भोर ! बंद दरवाज़ों से पड़े निकल , मन में लिये आशा की डोर । शेफालिका श्रीवास्तव भोपाल मतङ्गकेराम ******* "सुबह" की ब्रम्ह बेला है राम का नाम हो जाये मिले जो भी सुधीजन सबसे जै श्री राम हो जाये राम का नाम जपने से जरूरी राम को पाना राम को पाने का मतलब हृदय सियाराम

आज का चित्र

चित्र
  जीवन को अर्थ देता आज का चित्र और शानदार भावाभिव्यक्ति के मध्य से दो रचनाएँ मेरी नज़र से - निरुपमा खरे जी और उषा चतुर्वेदी जी - रश्मि प्रभा कैसा ये अंधेर है राह अंधेरी और खेत पर प्रकाश भरपूर है अज्ञान का अंधेरा है या बुद्धि की हेर-फेर है क्या डिग्री पाकर हो जाते हम ज्ञानवान हैं या अनपढ़ भी क‌ई मायनों में ज्यादा बुद्धिमान है समझ से परे ये क्या गोल -माल है ये कैसा विकास है सब एक से बढ़कर एक गुरु घंटाल हैं सीधे को उल्टा और उल्टे को सीधा बनाने की चलते ये चाल हैं _ निरुपमा खरे श्रीमती उषा चतुर्वेदी भोपाल मेरा प्यारा विकसित गाँव लगता है मुझको न्यारा गॉव आपस में हैं भाई चारा होय समस्या का निपटारा दूर तलक हरियाली फैली नहरों का तो जाल बिछा है लम्बी सड़कें और सपाट जोड़ें गाँव शहर के साथ सूर्य ऊर्जा का उपयोग विद्युत बचत का दे संदेश लघु उद्योग गाँव में चलते भारत का विकास दिखलाते बन रही मिल और कारखाने बंजर भूमि का उपयोग सांझ ढले होता अँधियारा पर गाँव सड़क पर है उजियारा मेरा सुन्दर प्यारा गाँव लगता मुझको न्यारा गांव श्रीमती उषा चतुर्वेदी भोपाल

सीढ़ी

चित्र
  आज जो दो रचना सीढ़ी" शब्द पर मेरी नज़र से ली गई हैं, उसमें आज के रचयिता हैं क्रमशः निरुपमा खरे जी और विजया रायकवार जी रश्मि प्रभा ऊंचाई पर पहुंचे तुम भूल ही गए उन सीढ़ियों को जो जरिया बनी थीं तुम्हें ऊंचाई पर लाने का सीढ़ी दर सीढ़ी कदम धरते तुम आखिर पहुंच ही गए आसमां तक आत्ममुग्ध,मद मस्त आनंद लेते ऊंचाई का पर खुशी बांटने को जब तलाशा कोई साथी तो पाया, तन्हा हो तुम कोई नहीं जो पीठ थपथपाए ताली बजाए खुद ही तो हर सीढ़ी को तोड़ते आए थे तुम भूल गए थे कि जो सीढियां ऊपर जाती हैं वही नीचे भी आती हैं खुद ही बंद किए थे वो रास्ते जो अपनों तक जाते हैं अब आसमां पर पहुंचे तुम कितने तन्हा,कितने अकेले - निरुपमा खरे आदरणीय बिंदु जी आपके द्वारा प्रेषित शब्द *सीढ़ी* पर एक कोशिश आपके समक्ष प्रस्तुत है। आरंभ किया जब चढ़ना सीढ़ी दर सीढ़ी पर लक्ष्य तक पहुंचाने की सीढ़ी दूर दिखाई देती है।। उस तक पहुंचने की हौसला अफजाई कानों को मधुर सुनाई देती है।। दृढ़ निश्चय कर सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते जाना है चाहे हो कितनी विघ्न बाधाएं ऊपर को बढ़ते जाना है।। कुछ मोटी कुछ छोटी कुछ खुरदुरी कुछ चिकनी सीढ़ी कुछ छाले भी दे जा

मन की रसोई

चित्र
  मन की रसोई में आज सबने खुद को मजबूती से सिद्ध किया है, एक से बढ़कर एक पकवान उपस्थित हुए ... लेकिन अनु श्री जी के कहने पर ब्लॉग के लिए एक मैं स्वयं को लेती हूं पर अपनी तरफ से लेती हूँ शेफालिका श्रीवास्तव जी और बिन्दु त्रिपाठी जी की रचना को, लीजिये इनका स्वाद जाड़े की बारिश यादों की सिहरन मन की रसोई में कुछ खट पट हुई एक आवाज़ आई चाय एक तरफ़ से कॉफ़ी की फरमाइश हुई आदतन मैंने सोचा पकौड़े भी तल ही डालूँ .... बचपन की केतली चढ़ाकर काटने लगी हूँ स्मृतियों के कुछ प्याज हरी मिर्च . . . चेहरे पर आ गई मुस्कान के धनिये पत्ते से उसे भर दिया है, प्याज की झांस से आंखों में उतरे पानी का खारापन मिलाया है कुरकुरे दिनों की तरह पकौड़े और चाय,कॉफ़ी के साथ बारिश की फुहारें चेहरे को छू गई हैं एक मीठा सा गीत सुनने लगी हूँ मन की रसोई झूम रही है... रश्मि प्रभा दिनाँक- ०८.१२.२१ विषय - मन की रसोई लेखिका - शेफालिका श्रीवास्तव मेथी की मुठिया सर्दी का मौसम है आया रंगबिरंगी सब्ज़ियाँ लाया गाजर मटर मेथी पालक ढेरों पत्ते की भाजी लाया बच्चों की फ़रमाइश आयी हमने मक्के की मुठिया बनाई पहले हमने गाजर किस ली साथ में देखो मटर भ

चित्र रचना

चित्र
  चित्र हक़ीक़त हो या काल्पनिक, हाथ में कलम है तो कल्पना में हक़ीक़त,हक़ीक़त में कल्पना के शब्द निखर ही जाते हैं ... आज भी सबों की कलम ने कमाल किया, चयन बड़ा मुश्किल है, पर करना है तो आज के दो रचनाकार हैं - निरुपमा खरे जी और विजया रायकवार जी रश्मि प्रभा एक था हाथी रहता हरदम उदास खुद में खामियां और दूसरों में नजर आती उसे खूबियां बेशुमार जब देखता रंग-बिरंगी तितली को उड़ता फूल-फूल और डाली-डाली अपने विशाल शरीर को देख भरता एक ठंडी आह और हो जाता कुछ और उदास एक दिन तितली आ बैठी उसके पास सुन कर हाथी की उदासी की वजह हंसी वो ठठाकर बोली तुम तो हो इतने भाग्यशाली दुनिया में सबसे बलशाली मेरी सुंदरता,मेरा अभिशाप बचा न पाती मैं खुद को तुम्हारा न कर पाता कोई बाल बांका पहचानो और सराहो अपनी खूबियां सुन कर हाथी मुस्काया अब उसके दिल-दिमाग में उड़ रही थीं रंग बिरंगी तितलियां बन कर खुशियां हज़ार मन ही मन वो उड़ रहा था बादलों के पार -निरुपमा खरे संस्कारों की पतली रस्सी पर होता हूं डावाडोल नहीं , शरीर बलशाली है पर हौसले कमजोर नहीं, संयम धारण करके आगे मैं बढ़ता जाऊं लक्ष्य तक पहुंचूंगा कैसे सोच तनिक ना घबराऊंँ मैं छोट